BNSS Section 144 Explained: Maintenance for Wives, Children & Parents

Shoab Saifi
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 दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा-125 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता ( BNSS 2023 ) की धारा-144 - पत्नियों, नाबालिग और असहाय बच्चों और बूढ़े माता-पिता के भरण-पोषण का आदेश ( Order for Maintenance of Wives, Minors and Children with Physical or Mental Disabilities, and Parents )



दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता ( BNSS 2023 ) की धारा-144 उन पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण से संबंधित है, जो अपने भरण-पोषण में असमर्थ हैं। यह सुनिश्चित करता है कि ऐसे लोग, जिन्हें कानूनन भरण-पोषण का अधिकार है, उन्हें उनकी देखभाल के लिए वित्तीय सहायता प्राप्त हो सके। यदि कोई व्यक्ति इस कर्तव्य की उपेक्षा करता है या उसे निभाने से इनकार करता है, तो मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को मासिक भत्ता देने का आदेश दे सकता है।


1. भरण-पोषण का दावा कौन कर सकता है ( Who Can Claim Maintenance? ) :-

प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट भरण-पोषण का आदेश तब दे सकता है, जब कोई व्यक्ति पर्याप्त साधन होते हुए भी निम्नलिखित लोगों का भरण-पोषण करने से इनकार करता है या उपेक्षा करता है:

(a) उसकी पत्नी ( His wife ) :- यदि पत्नी अपने भरण-पोषण में असमर्थ है।


(b) वैध या अवैध नाबालिग संतान ( Legitimate or illegitimate minor children ) :-  चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, अगर वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।


(c) शारीरिक या मानसिक विकलांगता से पीड़ित बालिग संतान ( Major children with physical or mental disabilities ) :-  यदि ऐसी वैध या अवैध संतान (जो विवाहित पुत्री न हो) बालिग हो चुकी है लेकिन शारीरिक या मानसिक विकलांगता या चोट के कारण अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।


(d) माता-पिता ( Parents ) :- यदि पिता या माता अपने भरण-पोषण में असमर्थ हैं।


2. भरण-पोषण में अदालत की भूमिका ( Court's Role in Maintenance ) :- 

मजिस्ट्रेट, उपेक्षा या इनकार के प्रमाण मिलने पर, भरण-पोषण के हकदार लोगों को मासिक भत्ता देने का आदेश दे सकता है। यह भत्ता कुल मिलाकर पांच सौ रुपये तक सीमित है, हालांकि इसे विभिन्न राज्यों में संशोधनों के माध्यम से बढ़ाया गया है।


यह भत्ता पत्नी, बच्चे या माता-पिता के भरण-पोषण के लिए होता है, जैसा कि मजिस्ट्रेट उचित समझे। 


मजिस्ट्रेट अंतरिम भरण-पोषण और कानूनी प्रक्रिया के खर्चों का भी आदेश दे सकता है, जिससे लंबे समय तक चलने वाले मामलों के दौरान उन्हें वित्तीय सहायता मिलती रहे।


3. नाबालिग पुत्री के लिए भरण-पोषण ( Maintenance for Minor Female Child ) :-

नाबालिग पुत्री के मामले में, यदि वह विवाहित है और उसके पति के पास उसे भरण-पोषण देने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं, तो मजिस्ट्रेट उसकी बालिग होने तक उसके पिता को भरण-पोषण देने का आदेश दे सकता है।


4. अंतरिम भरण-पोषण ( Interim Maintenance ) :-

भरण-पोषण से संबंधित चल रहे कानूनी मामले के दौरान, मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को अंतरिम भरण-पोषण देने और कानूनी प्रक्रिया के खर्चों को वहन करने का आदेश दे सकता है। यह अंतरिम आदेश जितना संभव हो, 60 दिनों के भीतर निपटाया जाना चाहिए।


5. महत्वपूर्ण शब्दों की परिभाषा ( Definitions of Key Terms ) :-

इस धारा में निम्नलिखित शब्दों को परिभाषित किया गया है:

"नाबालिग" Minor :- ऐसा व्यक्ति जिसने भारतीय व्यस्कता अधिनियम, 1875 के उपबंधो के अनुसार वयस्क प्राप्त नहीं की है।


"पत्नी" Wife : - इसमें ऐसी महिला भी शामिल है, जिसे उसके पति द्वारा तलाक दिया गया हो या जिसने तलाक प्राप्त किया हो, बशर्ते उसने पुनर्विवाह नहीं किया हो।


6. भरण-पोषण कब से शुरू होता है ( When Maintenance Starts ) :-

अदालत के आदेश के अनुसार, भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण का भुगतान आदेश की तारीख से देय होता है। कुछ मामलों में, मजिस्ट्रेट यह आदेश दे सकता है कि भुगतान आवेदन की तारीख से शुरू किया जाए।


7. आदेश का पालन न करने पर दंड ( Failure to Comply with Maintenance Orders ) :-

यदि कोई व्यक्ति बिना पर्याप्त कारण के आदेश का पालन करने में विफल रहता है, तो मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति के खिलाफ जमानती वारंट जारी कर बकाया राशि वसूलने का आदेश दे सकता है।


यदि वारंट के निष्पादन के बाद ( After the Execution of the Warrant ) भी बकाया राशि का भुगतान नहीं किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को एक माह तक की कैद की सजा दे सकता है, या जब तक राशि का भुगतान नहीं हो जाता (जो भी पहले हो) तब तक उसे कैद में रखा जा सकता है।


बकाया राशि वसूलने के लिए समय सीमा है ( There is a time limit to recover arrears ) :- 

आदेश जारी होने के एक वर्ष के भीतर आवेदन दायर करना आवश्यक है, तभी जमानती वारंट जारी किया जा सकता है।


8. पत्नी को भरण-पोषण की पेशकश ( Offer to Maintain Wife ) :-

यदि पति अपनी पत्नी को साथ रखने की शर्त पर उसका भरण-पोषण करने की पेशकश करता है, लेकिन पत्नी साथ रहने से इनकार करती है, तो मजिस्ट्रेट को पत्नी द्वारा दिए गए इनकार के कारणों की जांच करनी होगी। यदि मजिस्ट्रेट को यह इनकार उचित लगता है, तो वह भरण-पोषण का आदेश दे सकता है।


पत्नी के इनकार का एक उचित कारण यह हो सकता है कि पति ने दूसरी शादी कर ली हो या किसी और महिला के साथ संबंध रखता हो। इस स्थिति में, पत्नी को पति के साथ न रहने का अधिकार होता है और वह फिर भी भरण-पोषण का दावा कर सकती है।


9. पत्नी कब भरण-पोषण का अधिकार खो देती है ( Conditions Under Which Wife Loses Right to Maintenance )

 :- 

निम्नलिखित परिस्थितियों में पत्नी अपना भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार खो सकती है:

१. अगर वह व्याभिचार (Adultery) में लिप्त है।

२. अगर वह बिना उचित कारण ( Without Sufficient Reason ) के अपने पति के साथ रहने से इनकार ( Refuse to Live Together ) करती है।

३. अगर वे आपसी सहमति ( Mutual Consent ) से अलग रह रहे हैं।


यदि इनमें से कोई भी स्थिति सिद्ध हो जाती है, तो मजिस्ट्रेट भरण-पोषण के आदेश को रद्द कर सकता है।


निष्कर्ष:-

CrPC की धारा 125 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता ( BNSS 2023 ) की धारा-144  उन पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाई गई है, जो अपने भरण-पोषण में असमर्थ हैं। यह कानून यह सुनिश्चित करता है कि जिन लोगों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है, वे अपनी जिम्मेदारी से पीछे न हटें। मजिस्ट्रेट उचित और समय पर भरण-पोषण के आदेश जारी कर, सभी पक्षों के हितों का संतुलन बनाए रखने का प्रयास करता है।





Shah Bano Case A.I.R. 1985


शाह बानो केस भारतीय कानूनी इतिहास में एक महत्वपूर्ण मुकदमा है, जिसने व्यक्तिगत कानूनों, धर्मनिरपेक्षता और महिलाओं के अधिकारों पर एक नई बहस छेड़ दी। यह मामला 1978 में शुरू हुआ जब शाह बानो बेगम, जो कि एक 62 वर्षीय मुस्लिम महिला थीं, को उनके पति ने तलाक दे दिया। अपने गुज़ारे के लिए कोई सहारा न होने पर, उन्होंने भरण-पोषण के लिए कोर्ट में याचिका दायर की। शाह बानो ने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत यह दावा किया, जो सभी धर्मों के लिए लागू है। इस केस में …..

सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि "तलाकशुदा पत्नी जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, को भरण-पोषण देने के मुस्लिम पति के दायित्व के प्रश्न पर धारा 125 के प्रावधानों और मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधानों के बीच कोई संघर्ष नहीं है।" 

सर्वोच्च न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 को लागू किया, जो जाति, पंथ या धर्म की परवाह किए बिना सभी पर लागू होती है। इसने फैसला सुनाया कि शाह बानो को गुजारा भत्ते के समान भरण-पोषण राशि दी जाए।



अब इस केस की संपूर्ण पृष्टभूमि को समझ लेते है …..


1932 में, शाह बानो , एक मुस्लिम महिला, का विवाह मध्य प्रदेश के इंदौर के एक संपन्न और प्रसिद्ध वकील मोहम्मद अहमद खान से हुआ था और इस विवाह से उनके पाँच बच्चे थे। 14 साल बाद, 1946 मैं खान ने एक महिला हलीमा बेगम से दूसरी शादी कर ली। फिर दोनों पत्नियों के साथ रहने के वर्षों के बाद, उन्होंने शाह बानो 1975 में घर से निकल दिया । अप्रैल 1978 में, जब खान ने उन्हें ₹ 200 प्रति माह देना बंद कर दिया, जो उन्होंने जाहिरा तौर पर वादा किया था। 

यह दावा करते हुए कि उनके ( शाहबानो ) पास खुद और अपने बच्चों का पालन पोषण करने का कोई साधन नहीं है, उन्होंने इंदौर की एक स्थानीय अदालत में अपने पति के खिलाफ दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत एक आपराधिक मुकदमा दायर किया , नवंबर 1978 में उसके पति ने जब वह 62 वर्ष की थी, उसे एक अपरिवर्तनीय तलाक दे दिया, साथ ही उन्होंने ( मोहम्मद अहमद खान ) 3000 रुपए की रकम कोर्ट में जमा की जिसे उन्होंने महर की रकम बताया जिसे वे वापस कर रहे थे, जो इस्लामी कानून के तहत उसका ( शाहबानो ) का विशेषाधिकार था। खान ने बचाव किया कि शाह बानो उसकी पत्नी नहीं रही और इसलिए वह इस्लामी कानून के तहत निर्धारित रखरखाव को छोड़कर उसके लिए अतिरिक्त रख रखाव प्रदान करने के लिए बाध्य नहीं है। अगस्त 1979 में, स्थानीय अदालत ने खान को रखरखाव के रूप में शाहबानो को प्रति माह ₹ 25 की राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया । 1 जुलाई 1980 को, शाहबानो के पुनरीक्षण ( Revision) आवेदन पर, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने रख रखाव की राशि बढ़ाकर ₹ 179.20 प्रति माह कर दी। 


इसके बाद खान ने सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए एक याचिका दायर की जिसमें दावा किया गया कि…..

  1. मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार मेहर की रकम देने के बाद वो और भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं थे। अब यहां एक बात नोट करने वाली है की ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की व्याख्या के अनुसार तलाक की स्थिति में सिर्फ इद्दत ( तलाक के बाद जरूरी ३ महीने की अवधी ) की मियाद यानी तीन महीने तक गुजारा भत्ता देना होता है।

  2. शाह बानो अब उनकी ज़िम्मेदारी नहीं है क्योंकि खान ने दूसरी शादी की थी, जिसकी इस्लामी कानून के तहत भी अनुमति है। 


क्योंकि मुस्लिम पर्सनल लॉ हिंदुस्तान में कोडीफाइड नही है। ध्यान दीजिए की हाई कोर्ट ने जो फैसला दिया था वो सीआरपीसी की धारा 125 के तहत दिया था। सीआरपीसी की धारा 125 के तहत बेसहारा, त्यागी गई या तलाक शुदा महिला को अपने पति से सहायता प्राप्त करने का अधिकार है बशर्ते कि पति खुद मोहताज न हो। इसी धारा के तहत असहरा माता पिता तथा नाबालिग बच्चे भी सहायता मांग सकते है। 


क्योंकि शाहबानो के पास कमाई का कोई जरिया नही था। इसीलिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत शाहबानो को गुजारा भत्ता मांगने का अधिकार था। लेकिन क्योंकि शादी या तलक का केस सिविल केस होता है इसीलिए इसमें पर्सनल लॉ भी लागू होता है।

जब सुप्रीम कोर्ट में सीआरपीसी की धारा 125 की बात उठ गई तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सीआरपीसी एक और धारा का हवाला दिया सीआरपीसी की धारा 127 का । 

क्या कहती है सीआरपीसी की धारा 127 , चलिए बात करते है इस धारा की , इस धारा में यह बताया गया है की किन परिस्थितियों में कोर्ट भत्ते को कैंसल यानी रद्द कर सकता है या उसमे बदलाव कर सकता है। धारा 127 के खंड 3B में यह दर्ज है कि “पर्सनल लॉ के तहत अगर व्यक्ति को तय रकम मिल चुकी है तो ऐसे कैस में कोर्ट गुजारा भत्ते को कैंसल भी कर सकता है।”


अब कोर्ट के सामने सवाल था चूंकि धारा 127 का Section 3B धारा-125 को Contradict कर रहा था तो क्या धारा 125 मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होगी या नहीं ? इस सवाल का जवाब कोर्ट खोज रही थी।

 

इस मामले में एडवोकेट डेनियल लतीफ शाहबानो की तरफ से कोर्ट में पैरवी कर रहे थे उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ की व्याख्या पर सवाल उठाते हुए कोर्ट में कुरान की दो आयते पेश की …


आयत नंबर 241 जिसका तर्जुमा ऐसा बनता है

 “ जिन औरतों को तलक दे दी जाए उनके साथ जोड़े रूपया वगेरह से सलूक करना लाज़िम है ये भी परहेजगारो पर एक हक है”


 इसी के साथ आयत नंबर 242 में लिखा है…..

“ इस तरह खुदा तुम लोगो की हिदायत के लिए अपने अहकाम साफ साफ बयान फरमाता है।”


इन दोनो आयतों के दम पर शाहबानो दावा कर रही थी की कुरान में तलाक शुदा औरतों की मदद का फरमान है। इसीलिए शाहबानो को मदद दी जानी चाहिए क्योंकि टैक्स्ट में लिखा है। अंत में कोर्ट ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाया ।


3 फरवरी 1981 को, न्यायमूर्ति मुर्तजा फज़ल अली और ए वरदराजन की दो न्यायाधीशों की पीठ, जिन्होंने पहले मामले की सुनवाई की थी, ने अदालत के पहले के फैसलों के मद्देनजर, जिसमें कहा गया था कि संहिता की धारा 125 मुसलमानों पर भी लागू होती है, खान की अपील को एक बड़ी पीठ के पास भेज दिया। मुस्लिम निकाय ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद हस्तक्षेपकर्ता के रूप में मामले में शामिल हुए। इसके बाद मामले की सुनवाई पांच न्यायाधीशों की पीठ ने की, जिसमें मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ , रंगनाथ मिश्रा, डीए देसाई, ओ चिन्नप्पा रेड्डी और ईएस वेंकटरमैया शामिल थे। 23 अप्रैल 1985 को सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से निर्णय में अपील को खारिज कर दिया और उच्च न्यायालय के फैसले की पुष्टि की।


सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि "तलाकशुदा पत्नी जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, को भरण-पोषण देने के मुस्लिम पति के दायित्व के प्रश्न पर धारा 125 के प्रावधानों और मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधानों के बीच कोई संघर्ष नहीं है।" 


कुरान का हवाला देते हुए , इस विषय पर सबसे बड़े अधिकारी के समक्ष रखते हुए, इसने माना कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि कुरान मुस्लिम पति पर तलाकशुदा पत्नी के लिए भरण-पोषण का प्रावधान करने या उसे प्रदान करने का दायित्व डालता है। 


जब मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा , तब तक सात साल बीत चुके थे। सर्वोच्च न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 को लागू किया, जो जाति, पंथ या धर्म की परवाह किए बिना सभी पर लागू होती है। इसने फैसला सुनाया कि शाह बानो को गुजारा भत्ते के समान भरण-पोषण राशि दी जाए।


न्यायालय ने इस बात पर भी खेद व्यक्त किया कि भारत में समान नागरिक संहिता लाने के संबंध में भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 एक मृत पत्र बना हुआ है और कहा कि एक समान नागरिक संहिता ( Uniform  Civil Code ) परस्पर विरोधी विचारधाराओं वाले कानूनों के प्रति असमान निष्ठाओं को दूर करके राष्ट्रीय एकीकरण के कारण में मदद करेगी।



इस मुकदमे ने व्यक्तिगत कानूनों की सीमाओं से कहीं अधिक व्यापक प्रश्न खड़े किए, जिनका प्रभाव भारतीय समाज पर दीर्घकालिक रहा।


=> कानूनी लड़ाई और सुप्रीम कोर्ट का फैसला

 

1985 में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में शाह बानो को CrPC की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का हक दिया गया, जिसमें यह प्रावधान है कि किसी भी पत्नी को भरण-पोषण पाने का अधिकार है अगर वह खुद का खर्च उठाने में सक्षम नहीं है। इस निर्णय में न्यायमूर्ति वाई.वी. चंद्रचूड़ ने कहा कि कोई भी व्यक्तिगत कानून भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारों से ऊपर नहीं हो सकता। उन्होंने तर्क दिया कि धर्मनिरपेक्ष कानूनी ढांचा सभी नागरिकों को समान संरक्षण प्रदान करने के लिए होना चाहिए। यह फैसला न केवल शाह बानो के लिए, बल्कि सभी मुस्लिम महिलाओं के लिए एक जीत माना गया और इसे महिला अधिकारों और धर्मनिरपेक्षता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम समझा गया।


निर्णय का विरोध और मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986

हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने कुछ मुस्लिम समूहों और राजनीतिक नेताओं में गहरा असंतोष पैदा किया, जिन्होंने इसे इस्लामी कानून का उल्लंघन बताया। उनका मानना था कि क़ुरान में तलाक के बाद केवल इद्दत की 90 दिनों की अवधि के लिए ही भरण-पोषण का प्रावधान है। इस विरोध के कारण, कांग्रेस सरकार ने, जो उस समय राजीव गांधी के नेतृत्व में थी और बहुमत में थी, मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया। इस कानून ने मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं के भरण-पोषण को केवल इद्दत की अवधि तक सीमित कर दिया, जो कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कमजोर करने वाला था। यह कानून यह भी निर्दिष्ट करता था कि यदि महिला को आगे भरण-पोषण की जरूरत हो तो वह अपने परिवार या समुदाय के वक्फ बोर्ड पर निर्भर हो सकती है। इस कदम से महिला अधिकारों की दिशा में एक नकारात्मक प्रभाव पड़ा और धर्म तथा राजनीति की संवेदनशीलता को उजागर किया गया।



शाह बानो केस के व्यापक प्रभाव :-

शाह बानो केस ने धर्मनिरपेक्षता, न्याय और व्यक्तिगत कानूनों के संदर्भ में एक राष्ट्रीय संवाद को जन्म दिया। इसने भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों और धार्मिक कानूनों के बीच के विरोधाभास को उजागर किया। यह मामला महिला अधिकारों और विविधता में एकता की चर्चा को नई दिशा देता है। 


कई महिला अधिकार कार्यकर्ताओं के लिए यह मामला व्यक्तिगत कानूनों में सुधार की आवश्यकता को इंगित करता है, जो अक्सर महिलाओं को तलाक और भरण-पोषण मामलों में कमजोर बना देते हैं। इस मामले से समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) को अपनाने की बहस भी उभरी। समान नागरिक संहिता का उद्देश्य यह है कि सभी धर्मों के नागरिकों के लिए विवाह, तलाक, और उत्तराधिकार से जुड़े कानून एक जैसे हों। UCC के समर्थकों का तर्क है कि यह एक अधिक न्यायसंगत समाज का निर्माण करेगा, जबकि विरोधियों का मानना है कि यह सांस्कृतिक स्वायत्तता और अल्पसंख्यकों की परंपराओं के लिए खतरा हो सकता है।


वर्तमान प्रासंगिकता :-

हालांकि शाह बानो केस दशकों पुराना है, परंतु इसके मायने आज भी भारत के कानूनी और सामाजिक परिदृश्य में प्रासंगिक हैं। यह मामला आज भी समान नागरिक संहिता , महिलाओं के अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता पर चर्चा को प्रेरित करता है। यह मामले धार्मिक बहुलता और कानूनी न्याय की संरचना में लैंगिक समानता के संघर्ष का प्रतीक बन गया है, जो व्यक्तिगत कानूनों में सुधार के प्रयासों को प्रोत्साहित करता है।


शाह बानो केस ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को मजबूत किया और न्यायपालिका की भूमिका को भी स्पष्ट किया कि वह सामाजिक न्याय को संरक्षित करने के लिए एक सक्रिय भूमिका निभा सकती है। यह मामला इस बात की याद दिलाता है कि व्यक्तिगत कानूनों में समय के साथ बदलाव की जरूरत होती है, जिससे सभी नागरिकों के अधिकार सुरक्षित किए जा सकें।


दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा-126 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता ( BNSS 2023 ) की धारा-145 – भरण-पोषण कार्यवाही की प्रक्रिया ( Procedure for Maintenance Proceedings )


1. भरण-पोषण कार्यवाही दायर करने के लिए क्षेत्राधिकार ( Jurisdiction for Filing Maintenance Proceedings ) :-

दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 126 में धारा 125 के तहत भरण-पोषण कार्यवाही और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता ( BNSS 2023 ) की धारा-145 के तहत भरण-पोषण कार्यवाही दायर करने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। भरण-पोषण का दावा करने वाला व्यक्ति निम्नलिखित किसी भी जिले ( District ) में मामला दर्ज कर सकता है :-


(a) जहाँ प्रतिवादी (जिससे भरण-पोषण की माँग की जा रही है) रहता है, या

(b) जहाँ प्रतिवादी की पत्नी रहती है, या

(c) जहाँ प्रतिवादी अंतिम बार अपनी पत्नी के साथ या, अवैध संतान के मामले में, संतान की माँ के साथ रहा हो।


यह प्रावधान इस बात की सुविधा देता है कि भरण-पोषण का दावा करने वाला व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी जिले ( District ) में मामला दर्ज कर सकता है, जिससे भौगोलिक स्थान से जुड़ी कठिनाइयाँ कम हो जाती हैं।


2. साक्ष्य और उपस्थिति की प्रक्रिया ( Procedure for Evidence and Attendance ) :-

धारा 125 के तहत भरण-पोषण कार्यवाही में, सभी साक्ष्य उस व्यक्ति की उपस्थिति में लिए जाने चाहिए, जिसके खिलाफ भरण-पोषण आदेश दिया जाना प्रस्तावित है। यदि प्रतिवादी व्यक्तिगत रूप से उपस्थित नहीं हो सकता, तो उनके वकील (विधिक प्रतिनिधि) की उपस्थिति में साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं। साक्ष्य को समन मामलों के लिए निर्धारित तरीके से दर्ज किया जाना चाहिए, जिससे निष्पक्ष और पारदर्शी न्यायिक प्रक्रिया सुनिश्चित हो सके।


समन मामले, वे होते हैं जो आमतौर पर कम गंभीर होते हैं और जिनमें सरल और तेज प्रक्रिया अपनाई जाती है। इस प्रक्रिया का उद्देश्य भरण-पोषण मामलों को शीघ्रता से निपटाना है, ताकि संबंधित पक्षों को अनावश्यक विलंब से बचाया जा सके।


3. गैर-उपस्थिति की स्थिति में एकतरफा कार्यवाही ( Ex-Parte Proceedings in Case of Non-Attendance ) :-

यदि मजिस्ट्रेट को लगता है कि प्रतिवादी जानबूझकर समन प्राप्त करने से बच रहा है या जानबूझकर अदालत में उपस्थित होने से इनकार कर रहा है, तो मजिस्ट्रेट एकतरफा (ex-parte) कार्यवाही कर सकता है।


एकतरफा (ex-parte) का मतलब है कि मामले की सुनवाई प्रतिवादी की अनुपस्थिति में की जाएगी और निर्णय भी उसी आधार पर लिया जाएगा। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि प्रतिवादी अदालत में उपस्थित न होकर कार्यवाही को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सके।

हालाँकि, यदि प्रतिवादी बाद में अपनी अनुपस्थिति का उचित कारण बताता है, तो वह आदेश की तारीख से तीन महीने के भीतर आवेदन देकर एकतरफा आदेश को रद्द करा सकता है। मजिस्ट्रेट प्रतिवादी से इस शर्त पर भी आदेश को रद्द कर सकता है कि उसे प्रतिपक्षी को कुछ लागत का भुगतान करना पड़े। यह व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि प्रतिवादी बिना उचित कारण के अदालत में अनुपस्थित होकर कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग न कर सके।


4. लागत ( Cost ) का आदेश देने की शक्ति ( Power to Order Costs ) :-

अदालत को प्रतिवादी से कार्यवाही की लागत (मुकदमे के दौरान हुए कानूनी खर्च) वसूलने का अधिकार है। इसमें भरण-पोषण का दावा करने वाले पक्ष द्वारा मुकदमे के दौरान किए गए खर्च शामिल हैं। लागत का आदेश देने की शक्ति इस बात को सुनिश्चित करती है कि अनावश्यक मुकदमेबाजी को हतोत्साहित किया जाए और भरण-पोषण का दावा करने वाले पक्ष को कानूनी प्रक्रिया का वित्तीय बोझ न उठाना पड़े।


निष्कर्ष :-

CrPC की धारा 126 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता ( BNSS 2023 ) की धारा-145 के तहत भरण-पोषण कार्यवाही की प्रक्रिया का विवरण दिया गया है। यह प्रक्रिया भरण-पोषण कार्यवाही को न्यायिक क्षेत्र में लचीलापन प्रदान करती है, यह सुनिश्चित करती है कि साक्ष्य प्रतिवादी या उसके वकील की उपस्थिति में प्रस्तुत किए जाएं, और यदि प्रतिवादी अदालत में उपस्थित होने से बचता है, तो मजिस्ट्रेट एकतरफा कार्यवाही कर सकता है। इसके अलावा, अदालत को लागत आदेश देने की शक्ति भी प्राप्त है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि भरण-पोषण का दावा करने वाले पक्ष पर वित्तीय बोझ न पड़े।




Questions on CrPC Section 125 :-  


1. What is CrPC Section 125, and who can claim maintenance under it?  

2. Can a wife claim maintenance under Section 125 if she is employed?  

3. What are the legal rights of children under Section 125 of CrPC?  

4. How does Section 125 protect elderly parents in India?  

5. What is the process to file a maintenance claim under CrPC Section 125?  

6. Can a divorced wife claim maintenance under Section 125 of CrPC?  

7. What is the difference between CrPC Section 125 and other maintenance laws?  

8. What evidence is required to prove entitlement under Section 125?  

9. Can maintenance be denied under CrPC Section 125? If yes, under what circumstances?  

10. Is there any income limit for claiming maintenance under CrPC Section 125?  

11. How does Section 125 ensure justice for abandoned wives and children?  

12. What are the court’s considerations in determining the amount of maintenance?  

13. Can an adult child claim maintenance under Section 125 for education expenses?  

14. What is the punishment for not complying with a maintenance order under Section 125?  

15. Can maintenance orders under Section 125 be modified?  

16. How does Section 125 apply to parents who are not biological?  

17. Can a husband file for maintenance under CrPC Section 125?  

18. What role does mediation play in Section 125 cases?  

19. How are disputes related to Section 125 resolved in family courts?  

20. What are recent landmark judgments related to CrPC Section 125 in India?  



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